Monday, January 13, 2020

भारतीय सेना में अफ़सरों की कमी कितनी बड़ी चुनौती?

भारत के नए सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने पद ग्रहण करने के बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा कि 'भारतीय फ़ौज में अफ़सरों की कमी बरक़रार है'.

उन्होंने कहा कि 'भारतीय सेना में अफ़सरों की कमी इसलिए नहीं है कि लोग आवेदन नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसलिए है कि सेना ने अफ़सर चुनने के अपने मानकों को अब तक नीचे नहीं किया है.'

समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार नरवणे ने कहा कि 'वे भारतीय फ़ौज में संख्या से ज़्यादा गुणवत्ता को अहमियत देंगे'.

भारतीय सेना प्रमुख के इस बयान की सोशल मीडिया पर काफ़ी चर्चा हुई और कई रिटायर्ड सैन्य अफ़सरों ने उनके इस बयान की प्रशंसा की है.

अगस्त 2018 में प्रेस सूचना विभाग ने भारतीय रक्षा मंत्रालय के हवाले से बताया था कि 1 जनवरी 2018 तक भारतीय सेना के पास 42 हज़ार से अधिक अफ़सर थे और 7298 सैन्य अफ़सरों की कमी थी.

इसके एक साल बाद समाचार एजेंसी पीटीआई ने बताया कि यह संख्या बढ़कर 7399 हो गई है. यानी भारतीय फ़ौज में लेफ़्टिनेंट या उससे ऊपर के पद के जितने अफ़सरों की ज़रूरत है, उसमें 100 अधिकारी और कम हो गए हैं.

भारतीय नौसेना और वायुसेना में भी अफ़सरों की कमी है. पर थल सेना में अफ़सरों की कमी उनसे कई गुना ज़्यादा है.

भारतीय सेना में अफ़सर लेवल पर एंट्री पाने में असफल रहे अभ्यर्थी बताते हैं कि 'जब एसएसबी (सर्विस सलेक्शन बोर्ड) द्वारा रिज़ल्ट की घोषणा की जाती है तो उनका मनोबल बनाये रखने के लिए बोर्ड के सदस्य कहते हैं कि अमिताभ बच्चन, राहुल द्रविड और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी यह परीक्षा दी थी, पर वे इसे नहीं क्लियर कर पाए, इसलिए दिल छोटा ना करें.'

बताया जाता है कि एसएसबी हर अभ्यर्थी के अकादमिक रिकॉर्ड के अलावा उसकी लेखन क्षमता, डिबेट करने के तरीक़े, टीम में काम करने की क्षमता, तार्किक क्षमता और फ़ैसले लेने की क्षमता को परखता है.

बोर्ड के अनुसार हर अभ्यर्थी का मूल्यांकन OLQ (Officer Like Qualities) के मापदण्ड पर किया जाता है. यानी एक अभ्यर्थी में सैन्य अफ़सर बनने की ख़ूबियाँ हैं या नहीं, चयन प्रक्रिया में इसका ख़ास ध्यान रखा जाता है.

भारतीय सेना के रिटायर्ड अधिकारी और कारगिल युद्ध के 'हीरो' कहे जाने वाले मेजर डीपी सिंह ने सेना प्रमुख के बयान के बाद ट्वीट किया कि "SSB में अधिकतम अभ्यर्थी इसलिए सफल नहीं हो पाते क्योंकि उनमें 'ज़िम्मेदारी की भावना' का अभाव है."

तो क्या ये कहा जाए कि भारत में सेना के लिए क़ाबिल लोगों की संख्या घट गई है? या इसके पीछे वजह कुछ और है?

साथ ही सवाल ये भी है कि सेना में अफ़सरों की कमी की वजह से ग्राउंड पर तैनात सैन्य अधिकारियों में काम का कितना अतिरिक्त दबाव है? सेना के परिचालन में यह कितनी बड़ी चुनौती है? और किन वजहों से भारतीय सेना में अफ़सरों की कमी को पूरा नहीं किया जा सका है?

इन सवालों के जवाब जानने के लिए हमने 1971 से लेकर 90 के दशक तक भारतीय फ़ौज की कई महत्वपूर्ण सैन्य कार्रवाईयों का नेतृत्व करने वाले पूर्व लेफ़्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद और सैन्य रणनीति के जानकार-वरिष्ठ पत्रकार अजय शुक्ला से बात की. पढ़ें इन दोनों जानकारों का नज़रिया:

सेना के तीनों अंगों को मिलाकर भारत के पास क़रीब 14 लाख सैनिक हैं जो मुख्यत: उत्तर-पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्वोत्तर में चीन से लगे बॉर्डर पर तैनात हैं.

फ़ौज में अफ़सरों की कमी की जो बात है, उस पर अब नहीं, बल्कि एक दशक से अधिक समय से चर्चा हो रही है.

ये कमी जूनियर अफ़सरों के स्तर पर है, जैसे लेफ़्टिनेंट, कैप्टन और मेजर. यही वो पद हैं जो भारतीय फ़ौज में 'फ़्रंट लाइन' की ताक़त कहे जाते हैं और किसी भी युद्ध के दौरान मोर्चा संभालते हैं.

ये वे अफ़सर होते हैं जो मैदाने-जंग में प्लाटून या कंपनी को लीड करते हैं. ये ना हों तो बड़े सैन्य अधिकारियों को जेसीओ रैंक के अफ़सरों को कमान सौंपनी पड़ती है जिसके उतने बढ़िया नतीजे नहीं निकलते.

अब बात अफ़सरों की कमी से होने वाले असर की, तो मानिए एक बटालियन में 20 अफ़सर अधिकृत हैं और सर्विस में सिर्फ़ 13 या 15 अफ़सर रह जाते हैं तो उन्हें काम 20 अफ़सरों का ही करना होता है.

उदाहरण के लिए, कश्मीर, सियाचीन और पूर्वोत्तर भारत के तनावपूर्ण इलाक़ों में एक सैन्य अफ़सर के बिना रात की पेट्रोलिंग नहीं होती. नियम है कि उसे एक अफ़सर ही लीड करेगा. अब उसे एक ऐसे अफ़सर की ड्यूटी भी करनी है जो उनकी बटालियन में कम है.

तो इस अतिरिक्त काम का असर ये होता है कि एक अफ़सर जो 30 दिन में से पंद्रह दिन रात को अपने बिस्तर पर सो सकता था, वो सिर्फ़ सात या दस दिन ही सो पाता है. इससे उन पर मानसिक और शारीरिक तनाव पड़ता है.

सेना प्रमुख ने यह बिल्कुल सही कहा कि अफ़सर के चयन का स्टैंडर्ड नहीं घटा सकते.

सेना से जुड़ा कोई भी शख़्स इस बात से सहमत होगा कि अगर चयन का मानदण्ड गिराया गया तो निचले स्तर पर सेना का नेतृत्व बहुत कमज़ोर हो जाएगा और उसके फ़ैसलों से सेना की बदनामी होगी, देश की बदनामी होगी.

इसलिए बेहतरीन लोगों को चुनने के लिए अगर ये कमी बनी भी रहे, तो चिंता की बात नहीं है. पर क्या अच्छे लोगों की कमी है? ऐसा बिल्कुल नहीं है. देश में बहुत शार्प लड़के हैं जो फ़ौज के लिए परफ़ेक्ट हैं.

असल बात ये है कि जो अच्छे लड़के हैं, वो फ़ौज में आना ही नहीं चाह रहे. वे आईआईएम में जा रहे हैं, अन्य प्रोफ़ेशनल कोर्स कर रहे हैं. और इसकी कुछ वजहें हैं.

सबसे बड़ी वजह है कि फ़ौज की नौकरी में शारीरिक परिश्रम बहुत है. दूसरी बड़ी वजह ये है कि फ़ौज की नौकरी से जुड़ा स्टेटस दिन प्रतिदिन कम हो रहा है, सुविधाएं और सैलरी कम रह गई हैं.

फ़ौज के लोग 25 साल से चिल्ला रहे हैं कि पे-कमिशन में सशस्त्र बलों का भी एक एक्टिव सदस्य होना चाहिए, लेकिन वे रखते ही नहीं हैं.

क्लास-वन सेवाओं में सबसे कम वेतन पाने वाली नौकरी आर्मी की है. प्रमोशन होने की संभावनाएं फ़ौज में सबसे कम होती हैं क्योंकि हमारे पदों का ढाँचा बड़ा अलग है.

सिविल सर्विस में तक़रीबन सभी जॉइंट सेक्रेट्री या एडिश्नल सेक्रेट्री तो कम से कम बन ही जाते हैं. पर आर्मी में 80-90 परसेंट लोग मेजर या लेफ़्टिनेंट कर्नल के पद तक पहुँचकर ही रिटायर हो जाते हैं.

भारत में अगर क्लास-ए की 10-12 सेवाएं हैं, तो सेना में अफ़सर होना उनमें सबसे अंत में आता है.

भौतिकतावादी ज़माना है, बच्चे बहुत होशियार हो गए हैं, सब यह देखते हैं कि इतनी मेहनत और वक़्त देने के बदले उन्हें क्या मिलेगा?

पहले 80-90 फ़ीसद बच्चे, जो एनडीए जाते थे, वे अच्छे पब्लिक स्कूलों से होते थे. पर अब वो बात नहीं रही.

आज़ाद भारत में, जब तक ब्रिटिश शासन था, फ़ौज के अफ़सर को आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विस) वालों से 10 फ़ीसद अधिक पैसा मिलता था. तब बड़े-बड़े लोग फ़ौज में जाते थे.

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